पूर्णिया

PURNIA NEWS : धमदाहा क्षेत्र में विलुप्ति की कगार पर पारंपरिक फसलें, किसानों ने उठाई संरक्षण की मांग

PURNIA NEWS : धमदाहा अनुमंडल क्षेत्र में कभी जीवनशैली और भोजन का आधार रहीं पारंपरिक फसलें आज आधुनिक कृषि के दबाव में धीरे-धीरे गायब होती जा रही हैं। सामा, कौनी, कोदो, मरुआ, खेड़ी, शकरकंद, सुथनी, राहर, तीसी और खेसारी जैसी फसलें, जो कभी गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के आहार का मुख्य हिस्सा थीं, अब इनकी खेती की चर्चा तक मुश्किल हो गई है। जानकारी के अनुसार, नीरपुर, कसमरा, दमगड़ा, भवानीपुर, बलिया, डुमरा, करमनचक, रायपुरा, पटराहा, रुपौली, मोहनपुर, गोरियर, टिकापट्टी, डुमरी, भौआ जैसे इलाकों में इनकी खेती बड़े पैमाने पर होती थी। परंतु आज इन क्षेत्रों में इन फसलों का उत्पादन तो दूर, उनके बीज और आटा तक दुर्लभ हो गए हैं। मरुआ की रोटी, जो जितिया जैसे पर्वों पर परंपरागत रूप से खाई जाती थी, अब मुश्किल से उपलब्ध होती है, और यदि मिलती भी है तो उसका आटा 100 से 150 रुपये किलो तक बिक रहा है। वहीं, गरीबों की प्रिय फसल मानी जाने वाली शकरकंद अब 40 से 50 रुपये किलो तक बिक रही है। सुथनी जैसे कंद अब केवल छठ पर्व के आसपास बाजार में नजर आते हैं। सामा, कौनी, कोदो और खेड़ी जैसी फसलें तो अब यादों की बात बन चुकी हैं। इन पारंपरिक फसलों का स्थान अब केला, मक्का और रासायनिक खेती ने ले लिया है, जो भले ही उत्पादन में ज्यादा दिखते हों, लेकिन मुनाफे और मिट्टी की उर्वरता के लिहाज से नुकसानदायक सिद्ध हो रहे हैं।

जानकार बुजुर्ग किसानों का कहना है कि पहले की पारंपरिक फसलें बिना रासायनिक खाद, सिंचाई और अधिक लागत के सहज रूप से उपज जाती थीं। किसानों को लागत कम, मेहनत कम और लाभ अधिक मिलता था। वहीं आज के दौर में किसानों को लाखों की लागत लगानी पड़ रही है, लेकिन लाभ न्यूनतम है। इसके अतिरिक्त, फसल चक्रण का अभाव खेतों की उर्वरता को धीरे-धीरे खत्म कर रहा है, जिससे अधिक रासायनिक खादों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। इसका सीधा असर भूमि पर हो रहा है और उपजाऊ खेत अब बंजर होने की कगार पर पहुंच चुके हैं। डुमरा के चर्चित किसान डॉ. अमित प्रकाश सिंह, अवधेश कुमार सिंह, कसमरा के कौशल कुमार सिंह उर्फ झब्बो बाबू, नारायण मंडल और असकतिया के प्रगतिशील किसान प्रो. शम्भू प्रसाद सिंह जैसे अनुभवी किसान मानते हैं कि यदि सरकार और समाज दोनों ने समय रहते कदम नहीं उठाए, तो आने वाले वर्षों में ये फसलें केवल इतिहास के पन्नों में दर्ज रह जाएंगी। उनका कहना है कि पारंपरिक और दलहन फसलों जैसे राहर, तीसी और खेसारी के संरक्षण और संवर्धन के लिए सरकारी स्तर पर योजनाएं बननी चाहिए। साथ ही, किसानों को फसल चक्रण को अपनाना होगा ताकि मिट्टी की उर्वरता बनी रहे और रासायनिक खादों पर निर्भरता घटे। किसानों की इस चेतावनी के पीछे सिर्फ कृषि की नहीं, बल्कि समाज और संस्कृति की चिंता भी छिपी है।

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