पूर्णिया, सोहन कुमार: PURNIA NEWS बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी अनुमंडल स्थित मलिनियां गांव में हर साल बैसाखी पर्व के अवसर पर लगने वाला “पत्ता मेला” न केवल एक पारंपरिक आयोजन है, बल्कि जनजातीय समाज की जीवंत संस्कृति, स्वतंत्रता और सामाजिक सोच का अद्भुत उदाहरण भी है। सौ वर्ष से भी अधिक पुराने इस मेले की शुरुआत आदिवासी मान्यता के अनुसार भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा के साथ होती है। मान्यता है कि पूर्वजों को भगवान शिव-पार्वती ने स्वप्न में यहां पूजा करने को कहा था, तभी से इस पावन भूमि पर मेला लगने की परंपरा चली आ रही है। इस दो दिवसीय मेले का सबसे बड़ा आकर्षण है जीवनसाथी चुनने की खुली छूट। युवक-युवतियां अपने परिजनों के साथ मेला स्थल पर आते हैं और अपने लिए वर या वधू तलाशते हैं। अगर किसी युवक को कोई युवती पसंद आती है, तो वह उसे पान खाने के लिए निवेदन करता है।
यदि युवती पान खा लेती है, तो इसे प्रेम की स्वीकृति माना जाता है और दोनों कुछ समय साथ बिताकर विवाह का निर्णय लेते हैं। इसके बाद समाज की रीतियों के अनुसार शादी सम्पन्न होती है। यदि कोई पक्ष विवाह से इनकार करता है तो जनजातीय पंचायत के माध्यम से उन्हें दंडित किया जाता है, जिससे इस परंपरा की गंभीरता और सामाजिक अनुशासन बना रहता है। पत्ता मेले में भाग लेने के लिए न केवल बिहार, बल्कि नेपाल, झारखंड, असम, पश्चिम बंगाल और आसपास के राज्यों से भी बड़ी संख्या में जनजातीय युवक-युवतियां और उनके परिवार पहुंचते हैं। यह मेला एक ऐसा सामाजिक मंच है, जहां परंपरा, आधुनिकता और स्वाभाविक मानव स्वतंत्रता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इस मेले की एक और विशेषता है पूजा-अर्चना की अनोखी विधि। गांव में एक ऊंचा बांस का मचान (टावर) बनाया जाता है, जिस पर पुजारी चढ़कर भगवान शिव-पार्वती की पूजा करते हैं।
इसके बाद पूरे गांव और मेले में बांसुरी, ढोल, मृदंग की थाप पर सामूहिक नृत्य और लोकगीतों की धुन गूंज उठती है। युवक-युवती होली की तरह रंग-अबीर से खेलते हैं, जिससे मेला एक रंगीन उत्सव में बदल जाता है। इस दौरान जनजातीय कला, लोकसंगीत और सांस्कृतिक परंपराएं पूरे उत्साह से प्रदर्शित होती हैं। इस मेले को आधुनिक समाज में प्राचीनकालीन स्वयंवर परंपरा का जीवंत रूप माना जाता है। जहां प्राचीन समय में राजा-महाराजाओं की बेटियां स्वयंवर के माध्यम से वर चुनती थीं, वहीं आज जनजातीय समाज इस परंपरा को पूरी गरिमा के साथ निभा रहा है। जानकार मानते हैं कि यह मेला सीता स्वयंवर, द्रौपदी स्वयंवर की तरह ही आधुनिक ‘जनजातीय स्वयंवर’ है, जो आज भी न केवल अस्तित्व में है, बल्कि सामाजिक स्वतंत्रता का प्रतीक भी है।
पत्ता मेला केवल एक आयोजन नहीं, बल्कि यह आदिवासी समाज की आत्मा, उनकी आज़ादी, संस्कृति और परंपरा की कहानी है, जो हर साल नए रंगों के साथ जीवंत होती है और समाज को सोचने पर मजबूर करती है कि सादगी, परंपरा और प्रेम की यह परिभाषा कितनी खूबसूरत हो सकती है।
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