पारंपरिक फसलें विलुप्ति की कगार पर, खेतों से मिटा देसी स्वाद
पूर्णिया: Purnia News धमदाहा अनुमंडल के खेतों में अब वह पुराना देसी स्वाद नहीं रहा। मरुआ, कोदो, कौनी, खेड़ी, सामा, शकरकंद और सुथनी जैसी पारंपरिक फसलें, जो कभी ग्रामीण जीवन का हिस्सा थीं, अब खेती से पूरी तरह गायब होती जा रही हैं। खेतों में अब सिर्फ मक्का और केला जैसे आधुनिक फसलें रह गई हैं, जो स्वाद नहीं, सिर्फ सौदा देती हैं।
- कहां गईं देसी फसलें? – एक नजर में
- फसल का नाम पहले की उपलब्धता अब की स्थिति
- मरुआ हर घर में रोटी बनती थी बाजार से भी गायब
सामा जितिया पर्व की शान अब सिर्फ याद
शकरकंद गरीबों की ताकत ₹40-₹50/किलो
सुथनी हर छठ में अनिवार्य अब पर्व तक सीमित
तीसी/खेसारी खेत की उर्वरता बनाती थी विलुप्ति की ओर
किसान बोले – बचानी होगी देसी विरासत
डुमरा के प्रगतिशील किसान डॉ. अमित प्रकाश सिंह का कहना है:
> “हमारे खेतों की उर्वरा शक्ति पारंपरिक फसलों से ही बनी रहती थी। अब तो रासायनिक खाद डाल-डालकर ज़मीन थक चुकी है। सरकार को चाहिए कि इन देसी फसलों को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी और प्रशिक्षण दे, नहीं तो अगली पीढ़ी सिर्फ किताबों में इनके नाम पढ़ेगी।”
- सरकारी पहल की दरकार
किसानों और कृषि विशेषज्ञों की मांग है कि “माइक्रो एग्री स्कीम” या “मिलेट मिशन” जैसी योजनाएं केवल भाषणों तक सीमित न रहें, बल्कि ज़मीनी स्तर पर किसानों तक पहुंचे। मरुआ, सामा, कौनी जैसे अनाज, जो स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद हैं, उन्हें बाजार और समर्थन मूल्य के साथ दोबारा लोकप्रिय बनाना होगा।
- आखिरी बात – अगर अब नहीं चेते तो…
देसी फसलों का संरक्षण सिर्फ संस्कृति या स्वाद का मामला नहीं है, यह स्वास्थ्य, भूमि की उर्वरता और आर्थिक आत्मनिर्भरता से भी जुड़ा है। यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया गया, तो न केवल ये फसलें बल्कि खेत की ताकत भी हमेशा के लिए खो जाएगी।